![]()
30.प्रत्यक्षता Ø आदि ग्रन्थ – श्री
गुरु ग्रन्थ साहिब जी का हिन्दी अनुवाद रूपी लिप्यान्तरण प्रत्यक्ष प्रस्तुत विशेष हैं – प्रत्येक आत्मा के आत्मिक कल्याण हेतू – मार्ग दर्शन के
रूप में । कलियुग में ये मार्गदर्शन किसी मनुष्य से उपलब्ध विशेष होना अतिदुर्लभ
यानि के ना के बराबर ही हैं । अतः 113 दुर्लभ आत्माओं के ज़िन्दगी भर के उधम विशेष
से प्राप्त “ सत्य रूपी ” दुर्लभ लाभ को शलोको के जरिये अक्षरो के रूप में पूरे मनुष्य
समाज के लिये “ गाईड लाईन ” के रूप में प्रत्यक्ष किया
गया हैं । यह ज्ञान केवल अक्षरी रूप से जानकारी के तौर पर उपलब्ध विशेष
हैं । प्रत्येक आत्मा कलियुग में तकरीबन अन्धी-बहरी ही प्रत्यक्ष होती हैं – अपने
ही कमाये हुऐ निकृष्ट तथा अधूरे कर्मों के नतिजो की वज़ह से .....! यकीन जानिये किसी
भी किताब विशेष में कोई भी चमत्कार अथवा विशेष घुसा हुआ नंही हैं ! सभी किताबें केवल
सम्बन्धित विषय विशेष के सम्बन्ध में केवल जड़ तथा अक्षरी भाषा विशेष के जरीये अपने
सम्बन्धित अंग विशेष को आसानी से समझाने तथा विचारने हेतू ही उपलब्ध विशेष हैं जो
केवल जड़ प्राकृति तक ही सीमित हैं । भूख लगने पर जैसे आप अक्षरों के माध्यम से बड़ी
ही आसानी से अपनी जुबान द्वारा सामने वाले को समझा सकते हैं कि मुझे भूख लगी हैं
मुझे खाना चाहिये तथा मुझे किस प्रकार का खाना खाना हैं – यह सब कुछ, कुछ ही सैकिन्ड़ में सम्भव विशेष हो जाता हैं - फिर ज़रा विचारिये कि यदि भाषा रूपी अक्षर न
हो या हो और आप को जानकारी न हो तो सामने वाले को कैसे और किस तरह-तरह से कितना बता
पायेंगे कि आप के पेट में क्या कष्ट विशेष हैं और उसे कैसे-कैसे दूर किया जा सकता
हैं .....? जब की जुबान भी आप की पूरी
तरह से तंदुरुस्त विशेष ही है ..... ! अब विचारिये इन कितने भी महान से महानतम लफजों
को शलोकों में ब्यान करने – गाने बजाने – नाचने कूदने से भी आप की भूख रात्ति भर
भी शान्त होने वाली नंही हैं – किसी भी काल –परिस्थिती में – किसी भी प्रकार से केवल “ नंही ” .....! भूख शान्त होगी तो केवल
भोजन को प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष कर के “ सेवन विशेष ” करने पर ही । जिस का अक्षरी
लफ़जों से जानकारी के अलावा और कोई भी सम्बन्ध दूर-दूर तक केवल कुछ भी नंही ही हैं
.....! और भोजन एक पदार्थ हैं जो केवल और केवल पुरूषार्थ रूपी ऊधम विशेष द्वारा ही
अर्जित अथवा कमाया विशेष जा सकता हैं प्रत्येक काल स्थिती में भी .....! उसी तरह
से सभी किताबों में जानकारी रूपी मार्ग दर्शन ही केवल उपलब्ध विशेष हैं – मनुष्य
जन्म दुर्लभ-सीमित तथा कीमती विशेष हैं – अतः प्रत्येक लफ्ज़ विशेष को भी अच्छी तरह
से खूब सोच-विचार कर ही व्यवहार में लाना बुद्धिमता हैं विशेषकर + फिर
उधम अथवा व्यवहारिक कमाई विशेष के बाद ही तो नतिज़ा उपलब्ध विशेष होता हैं । जैसे
शलोक हैं कि “ सुच होवै ता सच पाये ” । अब इसे गाजे-बाजे से गाओ
– बजाओ – रटो – दोहराओ ज़िन्दगी भर निरन्तर – यकीन जानो कुछ भी उपलब्ध विशेष होने
वाला नंही हैं – कोई भी चमत्कार अथवा सच विशेष की तो कल्पना भी नंही ही हैं प्रत्येक
स्थिती विशेष काल में भी .....! होगा तो केवल मनुष्य जन्म का खर्च होना और आप नंगे
घसीट लिये जाओगे काल विशेष द्वारा “ ठगे ” जा कर .....! अब विचारिये इन लफ़जों का क्या अर्थ विशेष हैं – सुच होवै
यानि के सफाई का मार्गदर्शन हैं – सफाई किस कि ? मन-इन्द्रियों की – वो कैसे
होती हैं ? इन्हे सीमित तथा स्वच्छता यानि के अपने मूल की ओर प्रेरित करना अर्थात आँख सत्य
को देखना चाहे – कान प्रत्येक व्यवहार में सच को सुनना चाहे – नाक हर तरफ सच की ही
गंध की तलाश करे – जुबान केवल सीमित रूप से सच को ही ऊचरे अथवा ब्यान विशेष करे तथा
मन केवल विचार से भी अपने मूल यानि के आधार के लिये ही तड़पे (“ मन तू ज्योति स्वरूप हैं आपणा मूल पहचाण ”) तथा प्रत्येक इन्द्रि द्वारा
केवल सच को ही परिभाषित करता हुआ साबित अथवा स्थापित करे तभी “ सुच होवै ” लफ़ज़ विशेष व्यवहारिक रूप
से सार्थक विशेष होगा तथा आत्मा को “ ता सच पावै ” लफ़ज़ो के अन्दर छुपा हुआ रहस्यमय
अनुभव विशेष के रूप में प्राप्त होगा .....! Ø प्रत्येक आत्मा को आत्मिक अनुभव के लिये मन-इन्द्रियों का छिलका उतारना ही
पड़ता हैं जैसे केले का अर्थात पूर्ण रूप से इन्हें सीमित तथा मर्यादित विशेष करना
ही पड़ता हैं – निरन्तर व्यवहारिक तौर पर तभी अपने आधार विशेष का केवल अन्शिक आभास मात्र ही होता
हैं । आधार अनन्त हैं फिर सफर छोटा या शार्टकट में कैसे सम्भव हो सकता हैं .....? और इस आवश्यक कार्य विशेष के लिये आप को किसी
भी पूजा-सामग्री-मंत्रों-विचोलियों (मत-धर्मों-गद्दियों-पात शाहों वगैरह-वगैरह) तथा
स्थान या समय विशेष की कोई भी दूर-दूर तक कुछ भी कण मात्र तक की भी आवश्यकता ही नहीं
हैं – प्रत्येक काल-स्थिति विशेष में भी केवल “ नहीं ” । क्योंकि “ सब कुछ घर मह – बाहर नाही – बाहर टोलै
– भ्रम भुलाई ” अर्थात सच की बाहर
तलाश केवल मन द्वारा उत्पन्न किया हुआ केवल भ्रम मात्र ही तो हैं – यानी के ठगे जाने
का साधन .....! जो कुछ भी हैं वो सारा का सारा तू स्वयं हर वक्त अपने ही साथ तो लिये
फिरता हैं । फिर वो तुझे पदार्थों द्वारा संसार में कैसे उपलब्ध विशेष हो सकता हैं
चतुर प्राणी .....? “ हरि वेरवै अन्दर बाहर – मन मुकरोय मेरी
जिन्दड़िये ” जो
मत-धर्म इस पुस्तक विशेष से प्रत्यक्ष हुए हैं आज वो भी शकलें देखने – मत्था टिकोन
– अपना ध्यान कराने तथा लफ्जों को ही नाम बता कर – मुक्ति बांटने की पर्चियाँ काटने में ही स्वयं को महान साबित करते हुए – समाज को
गुमराह विशेष करने में ही दिन-रात बहुत व्यस्त विशेष हैं .....! “ आप गवायें ता सह पाये – अवर कैसी चतुराई
.....? ” मन-इन्द्रियों का छिलका उतारे बिना अर्थात सीमित-मर्यादित
किये बिना यह लफ्ज विशेष “ आप गवायें ” कैसे सार्थक होगा ? तथा इस के अभाव
में “ ता सह पाये ” की कौन सी कल्पना
विशेष का बोझा तू अपने साथ-साथ लिये फिरता हैं .....? अर्थात सभी चतुराइयाँ तेरी तेरे स्वयं के नर्कों का ही सामान विशेष-विशेष हैं और तू हैं कि दौड़-दौड़
कर केवल इन्हें ही संसार में एकत्र विशेष कर रहा हैं .....! जिन-जिन महान पदार्थों-साधनों को एकत्र कर मत-धर्मों-गद्दियों-डेरों-कर्मकाण्ड़
रूपी आड़म्बरों-तीर्थों के पीछे भाग रहा हैं यह सब केवल “ मृग मरीचिका ” ही साबित होगा रेगिस्तान
रूपी इस भव-सागर में यकीनी तौर पर – लेकिन जब तुझे यह सब पता विशेष चलेगा तब तक तो
बहुत देर हो चुकी होगी क्योंकि तू उस वक्त तो आखिरी गिनती विशेष गिन रहा होगा
.....! इस
लिये तू बाहर भागना बन्द कर तथा अन्दर का रास्ता अपना – वही केवल सच तक पहुँचने का
पक्का तथा पायेदार सच्चा रास्ता विशेष हैं जिसे केवल तुझे ही तय करना हैं । “ काहे रे बन खोजन जाई । सर्ब निवासी –
सदा अलेपा – तोहे संग समाई । पुष्प मद जंयू बास बसत हैं । मुकर में
जैसे छाई । ऐसे ही हरि बसै निरन्तर । घट ही खोजै भाई
।। ” जिस
पुस्तक में यह मार्ग दर्शन प्रत्यक्ष बार-बार लिख कर के बताया गया हैं उसी पुस्तक
को कूड़े में दफन किया जा रहा हैं अर्थात उसे सोने-चाँदी-जड़-पत्थरों में मड़ कर
कब्री स्वरूप दिया जा रहा हैं और दूध से धो कर ऊपर मन रूपी शैतान नाच-गा-बजा-कूद
रहा हैं और तीर्थों तथा मुक्ति की संज्ञा दे कर सच-खण्ड साबित किया जा रहा हैं
.....! “ अठ-सठ तीर्थ जे न्हावे
उतरे नांही मैल ” इस पुस्तक में दर्ज
हैं और इन ने मान रखा हैं कि तीर्थ तो ओर मत – धर्मों के हैं – हमारा तो मुक्ति का
धाम सच्च खण्ड हैं .....! 42 लाख जूनों के मल-मूत्र से भरी छपड़ियों को सरोवर बताता हैं वो भी अमृत का और बार-बार डुबकी
विशेष लगा कर मन द्वारा स्वयं को मुक्त घोषित कर साबित विशेष कर रहा हैं । एक-एक
पौड़ी पर पाठ कर डुबकी लगाता हैं और 84 डुबकियां लगा कर स्वयं को समस्त कर्मों से
आज़ाद कर लेता हैं .....! क्योंकि इसे पता चल गया हैं कि आधार के मुंह विशेष पर कुछ
विशेष - ? लिखा हुआ हैं । “ जल के मंजन जे गत होवै नित-नित मेंढक
वेसै तेही नर फिर-फिर जोन्ही पावै .....! ” और तो और शस्त्रों
का जलूस निकाल कर अरदासें कर रहा हैं – मन्नतें मांग रहा हैं – नाच कूद कर गाता बजाता
स्वयं को मुक्त घोषित कर स्थापित विशेष कर रहा हैं – कैसा मन रूपी घौर कलियुग विशेष
हैं शस्त्र यानी जड़ प्रकृति “ परम चेतन ” के अंश “ चेतन आत्मा ” को मुक्त कराने
में समर्थ साबित हो रही हैं – वाह रे चतुरनाथ कैसी तेरी चतुराई .....? सब कुछ हवा हो हवा में ही लीन होगा । जब
भी कोई भी आत्मा पूरी तरह से सच्चे मन द्वारा अपने मूल से प्रेम करती हुई आगे बड़ती
हैं अर्थात व्यवहारिक तौर पर आत्मा पर चढ़े मन-इन्द्रियों के छिलके उतारने लगती हैं
तब उसे एक अलग ही प्रकार का अहसास होता हैं .....! “ तृप्ति अथवा शांति
का ” जिसे वो ब्यान नहीं
कर सकती – लफ्जों में तो कतई नंही ! यह तृप्ति की प्यास उसे और अशांत बना देती हैं
जो उस आत्मा की आत्मिक प्यास रूपी आग में घी का काम करती हैं – जिस में वो फिर सुलगती
रात-दिन तड़पती केवल अपने आशिक की आशिकी में ही पल केवल मरती ही हैं – ये एक ऐसी
किन्तु दुर्लभ सच्ची आशिकी ही हैं जिस में आत्मा पर चढ़े हुए जन्मो - जन्मो के मैल
धुलने उतरने लग जाते हैं और फिर आत्मा निर्मल विशेष हो कर निरन्तर – आगे और केवल
आगे बढ़ती ही जाती हैं जिस का कोई भी अन्त ही नहीं हैं क्योंकि मूल तो केवल महा अनन्त
ही तो हैं । मूल में डूबती-समाती वो निरन्तर लीन फिर हर “ लफ्ज विशेष ” में निरन्तर नया
और नया पहले से भी बढ़ - चढ़ कर अर्थ – भाव – व्यवहार – विचार – अनुभव प्राप्त करती
रहती हैं अर्थात “ साहिब मेरा नित नवाँ
– सदा – सदा दातार ” यकीन
जानिये इस अवस्था को सम्बन्धित आत्मा किन्ही भी लफ्जों में कुछ भी ब्यान नहीं कर
सकती और न ही अपनी इस अवस्था अथवा स्थिति विशेष को किसी के साथ बांट सकती हैं
.....! क्योंकि समस्त भवसागर माया – ममता स्त्री-पुरुष के कामी व्यवहार रूपी प्रेम
– वासनाओं – कामनाओं तथा मानसिक अहम के विकारों में ही तो डूब रहा होता हैं निरन्तर
.....! फिर वो कैसे किस से क्या “ ला-ब्यान ” को बांटे
.....! अतः फिर वो किसी से मिलना तो दूर विचारना भी पसंद नहीं करती – केवल अपने उस
एक आधार के सिवा वो और कुछ नहीं जानती – समझती .....! यही “ सच्चा प्रेम ” हैं अर्थात प्रत्येक
आत्मा विशेष का केवल अपने “ मूल विशेष ” के प्रति पूर्ण
निरन्तर दुर्लभ आकर्षण विशेष ! सम्बन्धित
आत्मा विशेष ये समस्त अनुभव गठरी बाँध कर के अपने साथ ही ले जाती हैं । पीछे कुछ
नहीं छूटता या छोड़ती – बचता हैं तो केवल सांसारिक व्यवहार अथवा लफ्ज विशेष – जो
चाहे कितने भी महान या विद्वता से परिपूर्ण – गहरे विशाल सागर से ही क्यों न हो आत्मा
को तो मुक्त होने के लिये केवल बंधन का ही काम विशेष करते हैं जो सदा निरन्तर कलान्तर
में अधूरे ही साबित होते आये हैं और आगे भी होते ही रहेंगे – फिर चेतन आत्मा विशेष
के शान्त या मुक्त होने की कौन सी कल्पना विशेष सार्थक सिद्ध हो सकती हैं ! खरबों
के चढ़ावे पर जुगाली करता जीव विशेष अजगर बना कुंडली मार कर बैठा हैं इस अनमोल मार्गदर्शन
रूपी खजाने विशेष पर तथा न तो स्वयं का और न ही किसी को भी कुछ करने देगा यही इस
का संकल्प विशेष हैं इस अकुठ भण्डार की कूड रूपी कब्र बना कर सजाना – चादरें चढ़ाना – गाना बजाना
– जलूस निकालना तथा प्रार्थनाओं में ही सब कुछ हवा कर और नया-नया करने को बढ़ावा देना
ताकि सभी गुमराह होते रहे और यह अपना लोभ सीधा करता हुआ उसे और भी निरन्तर बढ़ाता
ही रहे .....! श्री
गुरु ग्रंथ साहिब की भाषा राष्ट्रीय हिन्दी भाषा के अधिक समीप हैं तथा समझने में
भी अधिक आसान तथा व्यापक हैं । दूसरा भ्रम यह है कि आम जन समझते हैं कि यह ग्रंथ
केवल सिख समुदाय का ही धर्म-ग्रंथ हैं तथा इन्हीं के लिये ही दिशा निर्देश वर्णित
होगे – ऐसा कदापि भी नहीं हैं .....! और न ही इस में किसी भी वर्ग विशेष – पक्ष
– विपक्ष या मित्र - शत्रु की भावना हैं । सामाजिक और धार्मिक आड़म्बरों से बंधन
मुक्त करते हुए – शाश्वत सदाचार और सद विचार के द्वारा गुरु – चिंतन – आत्मा – परमात्मा
– चिंतन और प्रभु मिलन की और ही मानव जन्म को प्रेरित किया गया हैं पूरे ग्रंथ विशेष
में । मानवीय दुर्बलताओं और दुर्वासनाओं को ही शत्रु मान कर साक्षात ईश्वर स्वरूप
गुरु (केवल रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष अथवा शब्द विशेष) की कृपा से स्वयं आत्मा
को काम – क्रोध – लोभ – मोह – अहंकार रूपी त्रासना से मुक्त होना और आवागमन से सदा
के लिये मुक्ति पाने का नाद विशेष ही सारे ग्रन्थ में प्रत्यक्ष ओतप्रोत विशेष हैं
। Ø 1430 पेज की इस पुस्तक का निचोड़ एक लाईन में कहा जाये तो वो क्या हैं ? जब नानक साहब से पूछा गया सिद्धो द्वारा
कि हे नानक बता तेरा गुरु कौन हैं ? तब गुरु साहिब
ने पाँच अक्षरों द्वारा समस्त जीवन का उद्देश्य ही सामने खोल कर रख दिया अर्थात कहा
कि “ शब्द गुरु – सुरत
– धुन – चेला ” यानी के मेरा गुरु शब्द ( केवल एक रागमई आवाज़
विशेष ) हैं तथा सभी आत्माये यानी के सुर्त इस धुन अर्थात रागमई आवाज़ की ओर आकर्षित
होती यानी के चेरी विशेष ही हैं .....! उसी भाव विशेष को ध्यान में रख कर ही पूरी
पुस्तक गुरु – सतगुरु – कीर्तन – ज्ञान – एक अक्षर – नाम – शब्द – अमृत – परमेश्वर
– वाणी इत्यादि-इत्यादि लफजो श्लोकों द्वारा केवल एक परमात्मा यानी के गुरु अर्थात
मार्गदर्शक को ही स्थापित विशेष करती हैं .....! इन लफ्जों विशेष के यदि अकक्षरी
संसारी अर्थ निकाल कर के विचारोगे तो केवल संसार तक ही सीमित रह जाओगे । संसार का
एक ही अर्थ – भाव हैं “ जमना तथा मरना ” । जीव के सभी सुख-दुःख
इसी जन्म-मरण में ही निहित हैं – फिर परमार्थ अर्थात आत्मिक कल्याण का क्या और कौन
सा भाव विशेष बचता हैं ? आत्मा इन्द्रियों
तथा मन द्वारा संसार से जुड़ी हैं और इसी में रचती-बसती अपना हित यानी के सुख विशेष
मानती समझती हैं । अतः जब तक आप इन सभी लफ्जों विशेषों के रूहानी भाव-अर्थ विचार
कर नहीं विचारोगे तो तब तक आप गुरु साहिब द्वारा दिखाया गया नक्शा आत्मिक कल्याण
विशेष का न तो देख ही पाओगे और न ही समझ कर ठीक दिशा की ओर अग्रसर हो सकोगे
.....! सभी जीव अपनी मत-बुद्धि अनुसार इन श्लोकों का अर्थ-भाव निकाल कर अपना-अपना
मन रूपी उल्लू – स्वार्थ सिद्ध करते हुए घूम-घाम कर इसी भवसागर में डूब ही जाते हैं
। यदि सच में आप तरना चाहते हैं तो मन से अपने को आजाद करो तथा सभी लफ्जों श्लोकों
में आये अर्थात प्रयोग किये गये मुख्य लफ्जों विशेषो का एक ही रूहानी अर्थ-भाव (
केवल रागमई प्रकाशित आवाज विशेष ) रख कर अर्थ को विचारो तथा फिर पूरी शिद्दत विशेष
से उस पर मन कर के चिंतन-मन्न कर संसार को व्यवहारित करते भी आप को मन-इन्द्रियों
के सुख से भी बहुत दूर यानी के ऊपर की वस्तु विशेष का भान अर्थात अनुभव विशेष होगा आप को उस आत्मिक शान्तिः
का भी सुखद आभास विशेष होगा जो ला ब्यान ही हैं । और इस के लिये आप को कही भी नहीं
जाना हैं और न ही किसी ओर का मुंह ही देखना हैं – यानी के “ घर ही मह अमृत भरपूर हैं – मनमुखा स्वाद
न आइया । ज्यूं कसतूरी मृग न जाणे – भरमदा भ्रम भुलाइया । ” इन सभी मुख्य लफ्जों
के संसारी अर्थ भी बड़े मजबूत हैं – तय केवल आप को ही करना हैं कि आप किस अर्थ-भाव
को अपनाना चाहते हैं अर्थात आप संसारी हैं या परमार्थी .....! संसार हैं तो जो धंधे – कर्म काण्ड चले-चलाये
जा रहे हैं मनमुखो द्वारा आप भी उन के पीछे गाते-बजाते –नाचते कूदते चलते रहिये और
नतीजा जन्म-मरण का पक्का विशेष करते रहें । और यदि परमार्थी हैं तो साबित करें विचार
कर मन से इन रूहानी अर्थ-भावों को व्यवहारिक रूप से अपना कर और नतीजे के रूप में
आत्मिक कल्याण को प्राप्त करें सदा के लिये .....! “ ज्ञान ना गल्लई ढूडिये – कथना करड़ा सार
” । यह मार्गदर्शन रूपी ज्ञान विशेष आप को मन-इन्द्रियों
के इस सांसारिक जाल विशेष में कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता अर्थात नौ गलियों में
ज्ञान नहीं बल्कि केवल भटकाव ही उपलब्ध विशेष हैं । ज्ञान केवल दसवीं गली यानि के
द्वार विशेष पर ही प्रत्यक्ष विशेष होता हैं – यानी के एलजेर्बा पहली-दूसरी जमात
में नहीं पढ़ाया जाता – हां दसवीं में अवश्य आप को पढ़ना ही पड़ता हैं .....! “ निर्बाण कीर्तन गावह करते का निमख सिमृत
जित छूटै ” यह कीर्तन केवल दसवीं गली में ही सुनने को मिलता
हैं – नौ गलियों में तो केवल शोर ही शोर अर्थात “ कंजरखाना ” विशेष ही उपलब्ध
होता हैं । Ø “ एक अक्षर जो गुरमख जावै ” यानी के मनमुखी
जीव इस एक अक्षर तक पहुंच ही नहीं सकता । “ मनमुखा नू फिर जन्म हैं ” अर्थात निश्चित
हैं । सुख-दुःख का डेरा अनन्त जूनों का भरा-भरपूर युगों-कल्पों तक चलने वाला वासनाओं
को पूरा करने हेतु – विभिन्न आकारों – प्रकारों का आधारभूतिक जन्म-मरण विशेष-विशेष
। Ø “ सतगुरू नू सब को वेखदा – जेता जगत संसार ।
ङिठया मुक्त न होवई – जिचर शब्द न करे विचार । ” अर्थात सभी महान
से महानतमो को सभी जीव देखते – संग करते ही हैं – थोड़ा या ज्यादा । लेकिन आत्मिक
कल्याण केवल गुरु-सतगुरु अर्थात रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष तक पहुंच कर के ही होता
हैं .....! क्योंकि वही केवल सत यानी के तीनो कालों में उपलब्ध विशेष रहता हैं –
निरन्तर प्रत्यक्ष व्यवहारिक रूप से .....! एक वही मूल-आधार केवल स्वयं से प्रकाशित
हैं शेष सभी तो केवल उच्छिष्ट मात्र ही हैं – दूसरे का खा – ले कर स्वयं को पिता
स्थापित कर रहें हैं – फैसला केवल आप को ही करना हैं कि पहले आप को शिव तक पहुंचना
हैं – फिर सत तक या सीधे एक आधारभूतिक सत विशेष की ओर .....! “ जपै जाये शंकर सतनामा – होये हृदय तुरंत
विश्रामा ” अर्थात मन-इन्द्रियों में सतनाम की कल्पना केवल
व्यर्थ का ढकोसला मात्र ही हैं ! Ø “ सब कुछ नामै ही ते होआ ” फिर नाम केवल अक्षर
अथवा लफ्ज ही कैसे रह गया कि उसे बांटना शुरू कर दिया यानी के नाम केवल एक रागमई
प्रकाशित आवाज विशेष हैं जो न पैदा की जा सकती हैं न खत्म, फिर बांटी कैसे जा सकती हैं ? वो भी लफ्जों में घुसा कर .....! “ नाम के धारे खण्ड-भ्रमंण्ड । नाम के धारे
पुरिया सभ भवन । सगल सृष्टि शब्द के पाछे । नानक नाम घटे-घट आच्छे ” । Ø किताब विशेष को
बार-बार पढ़ने – श्लोकों को रटने दोहराने – गाने इत्यादि से कुछ भी आत्मिक कल्याण
नहीं होता बल्कि रूह मन के इस जाल में फंस कर बाहर के बाहर ही भटकती रहती हैं और
दुर्लभ मानव जन्म गंवा कर बहुत-बहुत पछताती रोती-बिलखती हैं – परन्तु उस वक्त फिर
हो ही क्या सकता हैं .....? “ पड़िये जेते बरस-बरस – पड़िये जेते मास
। पड़िये जेती आरजा – पड़िये जेती सांस । नानक लेखै ईक गल-होर हउमः झखणा – झाख
.....! ” अर्थात पूरी जिन्दगी भर श्वास-श्वास पढ़ने-रटने-गाने
के बाद भी यदि एक बात विशेष नहीं हुई अर्थात आत्मा विशेष ने रागमई प्रकाशित आवाज़
को न तो सुना और न ही देखा – तो फिर एक बात तो निश्चित ही तय हो गई की आत्मा नेमन
के अहम में आ – फंस कर पूरा का पूरा मनुष्य जन्म व्यर्थ में ही गंवा दिया और एक बार
फिर से जन्म-मरण के कुचक्र में ही फंस गयी अर्थात झखणा-झाख यानी के असल में तो झख
ही मारता रहा लेकिन दुनिया में स्वयं को संत-महात्मा-परमार्थी वगैरह-वगैरह ही साबित
विशेष करता रहा । Ø “ बाणी गुरु – गुरु हैं बाणी – विच बाणी
अमृत सारे ” अर्थात बाणी जो केवल एक रागमई प्रकाशित आवाज़
विशेष हैं – गुरु यानी के मार्गदर्शक विशेष हैं । “ गुरु हैं बाणी ” अर्थात परमात्मा
जो कि मार्गदर्शक यानी के गुरु हैं – एक बाणी अर्थात रागमई प्रकाशित आवाज विशेष के
निश्चित स्वाभाविक स्वरूप विशेष के रूप में प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष हैं – निरन्तर
तीनों कालों विशेषो में भी – दोनों गुरु तथा बाणी लफ्ज विशेष एक ही अर्थ के सन्दर्भ
विशेष में प्रत्यक्ष हैं । “ विच बाणी ” अर्थात रागमई प्रकाशित आवाज में ही ये सभी प्रकार के अमृत सारे प्रत्यक्ष
विद्यमान उपलब्ध विशेष हैं – जिन के केवल समर्पक विशेष से ही सभी प्रकार के आवश्यक
कार्य विशेष भी संपन्न अथवा सिद्ध विशेष हो जाते हैं । जैसे के जन्म-मरण से सदा के
लिये आत्मा का मुक्त हो जाना – सदा के लिये सन्तुष्ट –शान्त तथा प्रसन्नचित्त होना
इत्यादि .....! “ गुरु बाणी कहे ” अर्थात यह श्लोक
जो उस पुस्तक विशेष में उपलब्ध हैं यह जिन्होंने लिखे हैं आप उन्हें गुरु के रूप
में देखते हैं तथा लिखित को बाणी का दर्जा विशेष भी देते हैं – यह लिखित पुस्तक अर्थात
गुरु की बाणी आप को लिख कर निर्देश यानी के गाईड़ लाईन दे रही हैं कि सभी सेवक जन
अर्थात जो भी मनुष्य जन्म विशेष में आयी हुई आत्माएं विशेष अपने मूल आधार विशेष की
ओर आकर्षित विशेष हैं और उस तक पहुंचना-जानना चाहती हैं – वो सभी रूहों को विशेषो
को मन से स्वीकार करना चाहिए कि तभी आत्मा का कल्याण सम्भव विशेष हैं जब गुरु यानी
के रागमई प्रकाशित आवाज जीव के सम्मुख रूबरू प्रत्यक्ष विशेष नहीं हो जाती अर्थात
“ प्रत्यख गुरु निस्तारे
” .....! प्रत्येक आत्मा का देह में निश्चित वास
हृदय चक्र विशेष में ही होता हैं तथा गुरु-शब्द-बाणी इत्यादि का निश्चित प्रत्यक्ष
वास दोनों आँखों के बीच में अर्थात आज्ञा चक्र विशेष में रहता हैं – अतः प्रत्येक
जिज्ञासु यानी के परमार्थी आत्मा विशेष को यह निश्चित सफर यानी के हृदय चक्र से आज्ञा
चक्र तक का, तय करना ही पड़ता हैं – जो कि केवल मनुष्य के
दुर्लभ आवश्यक जन्म विशेष ही में सम्भव विशेष होता हैं .....! यही “ होमवर्क ” हैं जिन्दगी भर
का – अनेक मनुष्य के जन्मो सहित में भी आवश्यक रूप से । अब आप विचारिये कि क्या आप
ने ये आवश्यक होम वर्क विशेष पूरा कर लिया हैं ? जो रंग-तमाशे में
पूरी तरह से डूबे विशेष हुए हो .....? अगर नहीं किया
हैं तो समझ लो आप अपने ही घौर दुखों विशेषो का ही आवश्यक सामान विशेष एकत्र करने
में संलग्न विशेष हो । Ø “ सब ते वड्डा सतिगुरु नानक ” इस वचन को समझने
के लिये पहले इतिहास को जानो अर्थात जब गुरुओं ने इन श्लोक रूपी बाणी को लिखा तब
इस में इन का अपना सांसारिक नाम विशेष दर्ज नहीं था । जिस कारण उस समय के कुछ लोभी-स्वार्थी
मनुष्यों ने इस लिखित विशेष में अपना निजी नाम लिख – डाल कर समाज को गुमराह कर अपना
उल्लू सीधा करने लगे तथा कुछ और लफ्जों विशेषो का प्रयोग कर अर्थ के अनर्थ ब्यान
विशेष होने लगे । तब-जब गुरु अर्जुन देव जी ने इन सभी लिखितो को एक पुस्तक का रूप
दिया – तब इस समस्या का भी हल यह निकाला – कि लिखित बाणी विशेष में “ नानक ” लफ्ज विशेष की छाप डाली ताकि कोई इस का अपने नाम
से प्रयोग न कर सके तथा और लफ्जों का भी प्रयोग न हो सके अर्थात सभी के सभी श्लोकों
को गिनती में पिरो दिया और एक निश्चित आधार विशेष में इसे बाँध दिया । तथा जानकारी
हेतु सभी की लिखित को महला 1 से 5 तथा फिर 9 के रूप में प्रत्यक्ष किया । और शेष
सभी भक्तों को उनके नाम विशेष से जोड़ दिया केवल जानकारी हेतु .....! क्या कोई अपना नाम लिख कर प्रभु के सामने अपने
को बढ़ा कहने का साहस विशेष करेगा, वो भी भक्त या
परमार्थी विशेष .....! जब कि सब जानते हैं – विशेष तौर पर मनुष्य जन्म के अर्थ को
समझने वाली रूह विशेष – कि प्रत्येक काल में केवल वही आत्मा डूबी हैं जिस ने अंतर
में सूक्ष्म सा भी अहंकार किया हैं – फिर लिख कर बड़ा कहने वाली का कौन सा दर्जा
विशेष होगा ? जरा विचारिए
.....! इस लिये नानक लफ्ज विशेष को गाईड़ यानी के मार्गदर्शन के स्थान विशेष पर रखो
तथा फिर पढ़ो कि सब से बड़ा “ सतगुरु ” हैं अर्थात सत केवल वहां लगता हैं जो तीनों कालों
विशेषो में प्रत्यक्ष विद्यमान उपलब्ध विशेष रहता हैं – निरन्तर प्रत्येक प्रस्थिति
विशेष में भी “ हादरा-हदूर ” । और गुरु यानी के “ रागमई प्रकाशित आवाज विशेष ” क्योंकि इससे आगे या इससे बड़ा की तो कोई कल्पना
विशेष ही नहीं हैं क्योंकि यही सब कुछ बनाता – फिर धारण करता, चलाता और हजम विशेष
कर – फिर उगल भी देता हैं पहले से बेहतर निराला विशेष लगातार .....! और फिर सभी जीवों-प्रकृति
इत्यादि की सुरक्षा भी केवल इसी से ही सम्भव विशेष हैं । “ भय विच सूरज – भय विच चंद – कोह करोड़ी चलत न अन्त ” अर्थात कभी किसी को एक पल के लिये भी आगे-पीछे
या रुकते हुए देखा हैं ? सभी उसी के भय अर्थात
दी गयी मर्यादा विशेष में ही निरन्तर चलते दोड़ते अपना-अपना कार्य विशेष संपन्न करने
जा रहे हैं अन्नत काल विशेषो से बिना रुके हुए .....! अर्थात “ जिन कल राख मेरी ” । Ø “ अमृत हर का नाउ ” अर्थात सभी कालों
में एक ही अर्थ विशेष हैं आत्मा, परमात्मा और प्रकृति
सभी एक ही हैं यानी के अमृत-नाम-हरी-बाणी-गुरु-सतिगुरु वगैरह सभी लफ्ज विशेष केवल
रागमई प्रकाशित आवाज विशेष की और ही इशारा विशेष करते हैं – और यह केवल और केवल मनुष्य
जन्म विशेष में एक ही स्थान विशेष पर साकार प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष होते हैं – केवल
दुर्लभ मनुष्य देह में – दोनों आँखों विशेषो के बीच में “ आज्ञा चक्र ” विशेष पर अर्थात
“ अमृत हरि का नाउ ” और ये कहा मिलता हैं “ देही मेह इस का विश्राम ” .....! यानी के कभी भी कही भी जाने की जरूरत नहीं
हैं, न सामग्री की, न श्लोकों-मंत्रों
की – न धूप बत्ती की, न किसी भी दलाल की – और न ही कोई भी घाट या तीर्थ विशेष की – अगर जरूरत हैं
तो केवल मनुष्य जन्म में एक पूर्ण – “ स्वस्थ विचार ” विशेष की जो बाहर सभी जगह से निकल कर केवल अन्दर
की ओर ही अग्रसर विशेष हो यानी के आगे बढ़ता हुआ आज्ञा चक्र तक पहुंचे .....! “ बुल्लया रब दा कि पाउणा – एदरों पुट्टणा ते उदर लाउणा ” ! केवल यही नाम रूपी ज्ञान विशेष दिया था गुरु
हज़रत इनायत शाह ने अपने शिष्य विशेष को और अमली जामा पहनाने पर शिष्य के सभी मनोरथ
सफल विशेष हो गये थे ....! आज के काल में गुरु-शिष्य परम्परा में क्या-क्या हो रहा
हैं उसे लफ्जों विशेषो में तो ब्यान ही नहीं किया जा सकता .....? Ø “ काइया-महल-मंदर-घर हरि का तिस मेहं रखी
ज्योति आपार ” ! फिर भी जीव उसे केवल बाहर रंग-तमाशे में ही
ढूंढता अनुभव विशेष कर रहा हैं .....! प्रत्येक काल में केवल तकनीकी रूप से भी यही
एक ही सच्चाई तथा रास्ता उपलब्ध विशेष हैं और एक हम हैं कि न जाने कितने कीचड़ या
दलदल रूपी मत-धर्म-डेरे-गुरु-गद्दियां-पात शाह-पैगंबर-पुत्र इत्यादि-इत्यादि बना
रखे हैं और दिन रात निरन्तर उन्हीं में रचे-बसे डुबकियाँ लगाते हुए सदा के लिये इसी
भवसागर में डूबते रहते हैं और इस जन्म मरण के कुचक्र में तड़पते हुए दूसरों पर ही
आरोप मढ़ते हैं । जबकि फैसला तो केवल आप स्वयं ही ने करना हैं कि हमें सच में तरना
हैं या केवल डूबना ही हैं । Ø “ नानक नाम जहाज़ हैं चढ़े सो उतरे पार ” । इस में भी नानक लफ्ज विशेष को अलग कर के गाइड
विशेष के स्थान पर रखो तथा एक ही जहाज़ यानी के एक जगह से दूसरी जगह तक जाने का आत्मिक
साधन विशेष केवल नाम अर्थात रागमई प्रकाशित आवाज विशेष ही हैं और जो आत्मा विशेष
इस पोर्ट तक यानी के “ आज्ञा चक्र ” विशेष तक का आवश्यक सफर विशेष तय कर के पहुंच
विशेष ही जाता हैं – वो आत्मा इस प्रकाश रूपी राग विशेष में समा कर अर्थात चढ़ विशेष
कर पार उतर विशेष जाता हैं । यानी के वहाँ पहुंच जाता हैं जहां से उसे कभी भी फिर
से इस जन्म मरण के कुचक्र में फंसना यानी के आना नहीं पड़ता .....! हमारी स्थिति
विशेष क्या हैं कि हम पोटली बांधे नानक इत्यादि लफ्जों विशेषो में कुंडी विशेष डाल
बैठे हैं – क्या आप का इंतजार विशेष कभी भी कैसे भी पूरा विशेष हो सकेगा .....? खूब विचारिये गा
.....! Ø “ दिनस चढ़ै फिर आधवै – रैण सभाई जाई ।
आंव घटै – नर न बूझै – नित मूसै लाज़ टुकाई .....! ” अर्थात हर पल उम्र
विशेष घट रही हैं यानी के काल रूपी चूहा उम्र रूपी रस्सी विशेष को पल-पल निरन्तर
काट-काट कर छोटा ही करता जा रहा हैं और तू है कि बेखबर निरन्तर रंग-तमाशे उछल-कूद
में डूबा जन्म दिन की खुशियां मना बटोर रहा हैं । कभी यह भी सोचा हैं कि जिस उद्देश्य
से तुझे ये कीमती दुर्लभ जन्म विशेष मिला हैं क्या तूने अपने उस उद्देश्य को पूरा
प्राप्त विशेष कर लिया हैं ? यानी के अपनी मंजिल
– रागमई प्रकाशित आवाज विशेष तक पहुंच गया हैं ? अगर हाँ तो फिर
ठीक हैं – खूब नाच-कूद-गा, अब से सब कुछ बढ़िया
ही होगा । यदि नहीं तो फिर सोच तुझे ज्ञात भी हैं कि काल मौत रूपी डंडा विशेष लिये
ठीक तेरे सिर पर ही खड़ा मंडरा रहा हैं और फिर पता नहीं कब वो इस शस्त्र को अचानक
से चला दे और फिर तुझे पीटता –घसीटता हुआ ले जा कर अंधे कुंए विशेष में डाल दे
.....! सोचा हैं फिर तेरा क्या होगा – कौन सुनेगा तेरी ? “ कूक पुकार को न सुणे – उत्थे पकड़ हो ढोइआ ” । फिर तो तेरे दुखों-दर्दों
का तो कोई अंत ही नहीं होने वाला और फिर तेरा चिल्लाना-तड़पना भी तेरे सिवा और कोई
नहीं सुनेगा .....! अब मूर्खता की हद तो देखो कि जिन महान आत्माओं ने यह लिख कर दिया
और सावधान किया कि अपना जन्म व्यर्थ के प्रमादों में व्यस्त-खर्च विशेष मत करो –
उन्ही के नाम का जन्म-मरण-गद्दी दिवस करोड़ों का खर्च कर के मना रहे हैं और पूरी
दुनिया में अराजकता फैला कर मनुष्य जाति को गुमराह यानी के भटकाया विशेष जा रहा हैं
और फिर ताली पीट-पीट कर स्वयं को गुरुमुख – महान साबित विशेष करने में लगे हैं ? दुनिया भी बड़े चाव से इस उलटे रंग तमाशे में
डूबी स्वयं को मुक्त –तरा हुआ ही समझ रही हैं .....! एक
रोगी जिद्द पर अड़ा हुआ हैं कि उसे तो केवल वैद्य धनवंतरी से ही इलाज विशेष करवाना
हैं – क्या यह सम्भव हैं ? अर्थात पूरी तरह
से असम्भव विशेष ही हैं । फिर तो मौत पक्की ही हैं । बुद्धिमानी किस में हैं ? यानी के आप निरोगी होना चाहते हो तो तुरन्त उपलब्ध
वैद्य से ही चिकित्सा विशेष करवाये और शीघ्रता से निरोगी हो कर अपनी मंजिल यानी के
ठीक दिशा की और बढ़े तथा केवल जीते जी ही अपनी निश्चित मंजिल विशेष को प्राप्त कर
ले – क्योंकि पता नहीं कब काल देवता आप को झपट्टा मार कर के घसीट ले जाये ! और आप
रोते-बिलखते हाथ मलते ही रह जाये । इसी प्रकार यदि आप पढ़ना चाहते हैं तो न्यूटन
से आप चाह कर के भी नहीं पढ़ सकते । अगर आप की चाहत पढ़ने की सच्ची-निश्चित और पक्की
विशेष हैं तो तुरन्त जो जानकार उपलब्ध विशेष हैं उसी से ही अपनी समस्याओं विशेषो
का निवारण करवा लीजिये अर्थात स्वयं को भी साक्षर यानी के जानकारी से भरपूर विशेष
बना लो और फिर तुरन्त उस पर अमली जामा पहनाना शुरू कर दो ! क्योंकि सिर पर तो मौत
ही मौत मंडरा रही हैं – और उलटी गिनती विशेष गिन रही हैं पता नहीं कब शून्य हो जाये
और आप को फिर से एक बार और पछताना विशेष पड़े .....! कहने
का तात्पर्य यह हैं कि जो मौजूदा प्रत्यक्ष उपलब्ध विशेष हैं केवल उसी से ही आप लाभ
विशेष कमा सकते हैं । जो चला गया है वो चाहे कितना भी महान से महानतम ही क्यों न
हो आप उस से कुछ भी प्राप्त करने में प्रत्येक स्थिति विशेष में भी केवल घोर असम्भव
विशेष ही हैं – और आगे भी ऐसे ही विशेष मजबूर ही रहेंगे । जिस वक्त ये महानतम थे
उस वक्त जो भी उन के संग-समर्पक में आये और यदि उन्होंने उन से कुछ भी लाभ विशेष
कमाना चाहा तो उन्हें वो सब विशेष लाभ मिला – अब उन सब के चले जाने के बाद आप उन
सब से कुछ भी जानने या प्राप्त करने में केवल घोर असमर्थ विशेष ही हैं । अतः जागो
और उन के पीछे भागना बंद करो अर्थात छोड़ो – हाँ यदि उन्होंने कोई जानकारी उपलब्ध
कराई हैं या कुछ भेद बताया हैं तो आप शुद्ध चित से उन मर्यादाओं का पालन करते हुए
अपने निश्चित गन्तव्य विशेष को प्राप्त करें – और अपने मनुष्य जन्म को सफल बना कर
समाज को भी एक निश्चित ठीक दिशा निर्देश करें । एक आप हैं कि उपलब्धता का अनुसरण
करने के बजाये नानक-गोबिंद-ईसा-मुहम्मद आदि-आदि महानो-गुरुओं-संतों वगैरहो-वगैरहो
के पीछे भाग रहे हैं और अपना मनुष्य जन्म व्यर्थ ही खोते चले जा रहे हैं .....! सभी
ने एक ही बात चिल्ला-चिल्ला कर कही हैं कि “ नानक कहत पुकार के – गह प्रभ शरणाई ” । और आप हैं कि
आप ने सभी को ही प्रभु का पिता बना रखा हैं उन्हीं पर गठरी बांधे चढ़े बैठे हो –
फिर “ नतीजा महान विशेष
” डूबना तो निश्चित ही हैं .....! जब
आप को इतना कीमती तोहफा गाइड रूपी पुस्तक विशेष के रूप में मिला हैं तो तुरन्त ही
उस का सदुपयोग क्यों नहीं करते अर्थात दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए जन्म-मरण
के आधारभूतिक दुखों से सदा के लिये स्वयं को पूर्णता छुटकारा क्यों नहीं दिलाते ।
अब इस अवश्य विशेष कार्य हेतु आप को विशेष विवेक की भी आवश्यकता होगी – केवल बुद्धि
रूपी विद्वता विशेष से काम नहीं चलेगा । और यह भी बिना कमाई के न तो प्राप्त होती
हैं और न ही समझ में आती हैं । अतः पहले “ यमः – नियम ” का पालन करते हुए
स्वयं को पूरी तरह से ट्रेक(track) पर लाये अर्थात
संयम में रहते हुए स्वयं को मर्यादित विशेष करें । तभी विवेक की मात्रा बढ़ेगी और
आप ठीक निर्णय लेने में समर्थ विशेष हो सकेंगे । जहां “ किताबी गाइड ” का यह फायदा हैं
कि यह बहुत से समाजी ढोंगियों से आप को बचाती हैं तो वहीं इस का एक साईड ईफेक्ट भी
हैं कि यह कभी भी न तो बोलती हैं और न ही कान पकड़ कर आप के मुंह पर तमाचा मारते
हुए आप को बताती हैं कि कौन सा मार्ग अथवा दिशा आप के लिये ठीक हैं – और कौन सा मार्ग
आप को गुमराह करने के लिये ! अतः आपके विचार में आप के ही विचार विशेष से आया अथवा
प्रत्यक्ष विशेष हुआ मार्ग सदा संशय में ही हैं .....! अतः इस के लिये गहन चिंतन-मन्न
अर्थात विवेक बुद्धि की ही आवश्यकता विशेष हैं .....! इस किताबी खामोशी के कारण ही
बहुत सी मन-घड़न्त गद्दियां-गुरु-पात शाह-महंत इत्यादि वगैरह-वगैरह सतगुरु जैसे प्रगट
हो जाते हैं और स्वयं डूबे हुए, दूसरों को भटकाने
का मार्ग विशेष प्रत्यक्ष करते हैं । इस में आप की कोई भी मदद करने वाला नहीं हैं
– केवल आप को ही कमर कसनी होगी और स्वयं को स्वयं से भी डूबने से बचाना होगा । इसलिये
आप को इस पुस्तक में छुपे रहस्य से पूरी तरह से परिचित विशेष करवा दिया गया हैं और
अब आप स्वयं ने ही आप का अपना भी निर्णय विशेष करना हैं । अब
आप विचारिये आप कहां खड़े हैं ? आप के पास तो पुस्तक
पढ़ने तक का भी समय ही नहीं हैं – फिर विचारना तथा विवेकता को प्राप्त कर ठीक फैसला
ले कर उसे अमली जामा पहनाने तक का सफर कौन से युग-कल्प काल विशेष में होगा अर्थात
आप कर पायेंगे इस की तो कल्पना में भी कोई गढ़ना ही नहीं हैं .....। लगता
हैं आप को बुरा लग गया हैं, आप को इन व्यर्थ
के मुक्ति झमेले में नहीं पड़ना हैं – फिर ठीक हैं लगे रहिये पुस्तक पर महंगे फूल-माला-सोने
की ईंटें-प्लेन-चादरें भारी-भारी चढ़ाते रहिए और गोल-गोल घूम कर माथे रगड़ते रहिये
शायद आप की मृग-तृष्णा आप का कोई जैक-पाट लगवा दे .....! हाँ एक और बात, डुबकियां लगाना मत भूलिये गा क्योंकि आगे आप
को इस की बहुत जरूरत पड़ने वाली हैं – साथ ही हैड़-फोन पर बाजा तथा ढोल पर नाचना
कूदना भी जारी ही रखिये गा क्योंकि केवल और केवल यही अभ्यास आप को आगे राहत दिलवाने
में समर्थ विशेष साबित होगा .....! क्योंकि
आगे के रास्ते बहुत ही आग जैसे तपे हुए तथा तेज धार वाली छुरियों जैसे नुकीले उबड़-खाबड़
और भयावह बदबूदार विशेष-विशेष हैं .....! आगे
कलियुग की विषम प्रस्थिति को ध्यान में रखते हुए गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह मार्ग
प्रत्यक्ष किया कि “ अकाल पुरख के बचन
सिउ – परगट चलाइयो पंथ । सब सिकखन को बचन
हैं – गुरु मानयो ग्रन्थ ।। गुरु खालसा जानिओ – प्रगट गुरु की देह । जो सिख मो मिलबो
चहै – खोज इनी मो लेह ।। ” इन
आखिरी वचनों का पालन करते हुए आप को आगे बढ़ना हैं । यह दिशा निर्देश सभी आत्माओं
हेतु हैं न कि सिख यानी के केवल इस पंथ के अनुयायियों के लिये । सिख का भाव हैं सीखने
की सच्ची आवश्यक चाहत विशेष रखने वाला, जो समाज सहित प्रभु
विशेष आधार का होना चाहता हैं । उसी के लिये ये अनमोल तोहफा विशेष उपलब्ध हैं । फिर
इस की पहचान भी गुरु साहिब ने दी लिख कर के प्रशस्त विशेष कर दी हैं ? “ पूर्ण ज्योत जगै घट मह – तब खालिस ताहि निखालिस जानै । ” जब तक ये निश्चित
मंजिल विशेष जीव को प्राप्त न हो जाये उसे दृढ़ता से अपने इसी कार्य विशेष में ही
संलग्न विशेष रहना चाहिए । “ न ” कि समाज में शेखी
बघारते हुए-स्वयं के लिये नरकों का समान विशेष-विशेष एकत्र करते हुए – इसी भवसागर
में डूब जाने में ही व्यस्त विशेष रहना चाहिए ।
|