ऋषि-मुनियों की संतान ! “ परमात्मा ” को त्याग जानवरों का संग पसंद करे, नतिजा किसी दूसरे ने तो भुगतना नंही ! वासना जून का निर्धारण करती हैं । निश्चित नियम हैं । गुरू साहिब ने स्पष्ट इशारा दिया हैं –

“ अंति कालि लक्षमी सिमरै ऐसी चिन्ता महि जे मरै ।।

सरप जोनि वलि वलि अउतरै ।।1।।

अरी बाई गोबिंद नामु मति बीसरै ।।रहउ।।

अंति काल जो स्त्री सिमरै ऐसी चिन्ता महि जे मरै ।।

बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै ।।2।।

अंति काल जो लड़िके सिमरै ऐसी चिन्ता महि जे मरै ।।

सूकर जोनि वलि वलि अउतरै ।।3।।

अंति काल जो मंदर सिमरै ऐसी चिन्ता महि जे मरै ।।

प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ।।4।।

अंति काल जो नाराइण सिमरै ऐसी चिन्ता महि जे मरै ।।

बदति त्रिलोचनु ते नर मुकता पींताबर वा के रिदै बसै ।।5।।2।। (तिलोचन-526)”

( अन्त काल अर्थात मनुष्य जन्म में )

     संगत जीव के “ उत्थान अथवा पतन ” में बहुत बडा रोल अदा करती हैं ! अन्तर में शब्द ( गुरू – केवल रागमई प्रकाशित आवाज़ विशेष ) का संग और बाहर भी शब्द + केवल “ सच्चे ” परमार्थी का ही संग जीव के लिये कल्याणकारी निश्चित साधन हैं । केवल भौतिक समृद्धि आत्मा के कल्याण का विचार तो कल्पना में भी सम्भव नंही हो सकती, हाँ “ पतन ” का साधन अवश्य निश्चित समझिये । जो लोग मुर्दो को कब्रो में सजा कर रखने का धंधा आज तक कर रहे हैं ! उन से आत्मिक कल्याण कल्पना में भी न जान सकोगे ! आत्मा शारीरिक मोह को अन्त तक कभी नंही त्याग पाती । अतः प्रेत इत्यादि निचली जूनों में गिर कर इन कब्रो में फंसी रहती हैं । दुनिया में विकास का “ दावा ” करने वालो मनुष्यों का इस से भी विकृत हष्र प्रत्यक्ष देखने में आता हैं .....!

     मनुष्य जन्म केवल परमात्मा तक पहुंचने का “ साधन ” मात्र हैं । जो आत्मा इस दुर्लभ-कीमती  जन्म का दुरोपयोग करती हैं अर्थात इसे मिली प्राण-शक्ति शैतान अर्थात संसार पर खर्च कर देती हैं उस का उसे बहुत बडा जुर्माना+सजा भुगतना पड़ता हैं । “ कूक पुकार को न सुने ओत्थे पकड ओह टोहइया । ”

       सम्बन्धित रूहें ” विकृत जूनों में गुम हो चुकी हैं । फंदा शैतान का आप के गले में भी पड़ चुका हैं । निरन्तर घसीटता हुआ आखिरी गिन्ती गिन रहा हैं । “ प्राणी तू आयो लाहा लैण, लगा कित कुफकडे सब मुकदी चली रैण । कुदम करे पशु-पंखिया दिसै नाही काल ! ”

       उस से पहले कि वो अपना काम करे तू अपना कार्य पूर्ण कर ले । ( जो तूने अभी तक शुरू भी नंही किया ! )

       विकृत जूनों में आप के नाम की तख्तियां लग चुकी हैं, इंतज़ार हो रही हैं, केवल आप का पहुंचना बाकी हैं ! पूंजी खत्म होती जा रही हैं – एक प्राण की भी गॉरन्टी कोई नंही दे सकता । फिर भी “ काम ” से फुरसत नंही मिलती । इस काम को तू “ निजी शत्रु ” जान । जो क्रोध बन कर सूक्ष्म रूप से मन-बुद्धि तथा इन्द्रियों में समाया रहता हैं । इसे तू जड़ से उखाड़ फेंक ।

       सब पापों की जड़ काम अर्थात वासना (कामना) हैं जो कभी नंही मिटती केवल बदलती हैं । इस की दवाई “ केवल ” शब्द ( नाम = प्रकाश ) अथवा परमात्मा का शौक हैं ( केवल निर्मल हृदय से )

“ निर्मल मन जन सो मोहे पावा, मोहे कपट छल-छिद्र न भावा । ”

( इस पत्र को चालान की कापी समझना । तीनो मुल्कों की सभी ताकतें मिल कर इस की एक मात्रा भी आगे-पीछे करने में सक्षम न हो सकेगी निश्चित समझिऐ । )

 

19-04-2004

TO BE CONTINUED..............

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